SARZAMEEN MOVIE REVIEW :KHULI DESHBHAKTI OR ADHURA JAJBA

sarzameen  movie review: खुली देशभक्ति और अधूरे ज़ज़्बे: अब कैसा लगेगा अगर एक अच्छी कहानी बर्बाद हो जाए

बॉलीवुड ने एक बार फिर देशभक्ति और भावनात्मक ड्रामा को एक साथ मिलाने की कोशिश की है, लेकिन नतीजा निराशाजनक ही लगता है। करण जौहर और धर्मा प्रोडक्शंस द्वारा बनाई गई यह नई फिल्म सरज़मीन। यह कुछ गहरा कहने की कोशिश करती है, लेकिन अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुँच पाती। इस फिल्म में काजोल, पृथ्वीराज, सुकुमारन और इब्राहिम अली खान जैसे कलाकार हैं। यह फिल्म गहरे ज़ज़्बे और ड्रामा से भरपूर है।

सरज़मीन की कहानी: अब देशभक्ति की पटकथा के बारे में और पढ़ें।

सरज़मीन फिल्म एक दिलचस्प कॉन्सेप्ट से शुरू होती है - एक आर्मी ऑफिसर का बेटा जो कुछ सालों बाद आतंकवादी बन जाता है। यह कॉन्सेप्ट एक बेहद भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक कॉन्सेप्ट हो सकता था, लेकिन दुख की बात यह है कि फिल्म इसे सतह से आगे नहीं ले जा पाती। लेकिन आयुष सोनंद का काम ईरानी है। इस देशभक्ति को महज एक दिखावा बना दिया गया है।

सरज़मीन का अभिनय: यह सिनेमा नहीं, बल्कि एक स्कूल का मैदान है।

अपनी यह दूसरी फिल्म कर रहे इब्राहिम अली खान को एक गद्दार बेटे के आतंकवादी बनने के किरदार पर यकीन ही नहीं हो रहा है। उनके डायलॉग्स, उनकी बॉडी लैंग्वेज, उनके हाव-भाव, सब कुछ अधूरा सा लगता है।

उनका एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था, "खून पे लिपटा कफ़न हूँ", लेकिन यह ट्रेलर से बेहतर नहीं था।

इसमें एक आर्मी ऑफिसर की पत्नी और माँ का किरदार निभा रही काजोल भावुक होते हुए भी चीखती-चिल्लाती नज़र आती हैं, जिससे उनके किरदार की गरिमा कम हो जाती है। पति को किरदार के हाव-भाव समझ नहीं आते और जो असल ज़िंदगी में आर्मी ऑफिसर की पत्नियाँ हैं, वे बहुत मज़बूत हैं, उनमें गहराई है और वे चीज़ों को समझती हैं।

इसमें कमज़ोर स्क्रिप्ट ने पृथ्वीराज सुकुमारन जैसे स्टार के अंदाज़ को बेकार कर दिया। उनकी उपस्थिति तो दमदार है, लेकिन उन्हें करने के लिए कुछ दिया ही नहीं गया।

अगर सरज़मीन में कुछ अच्छा है, तो वह है। एक कश्मीरी फिल्म है जिसमें जब भी कैमरा बर्फ से ढके पहाड़ों पर फोकस करता है, तो सुकून का एहसास होता है, लेकिन कहानी बिल्कुल भी अच्छी नहीं है।

फिल्म के एक्शन सीन्स में भी जान नहीं है। बैकग्राउंड म्यूजिक बार-बार किसी बड़ी बात का एहसास दिलाने की कोशिश करता है, लेकिन अगर सीन ही मायने नहीं रखता, तो म्यूजिक क्या करेगा?

फिल्मों के कॉम्बिनेशन में तर्क की कमी है:

हकीकत से कोई जुड़ाव नहीं है। क्या असल ज़िंदगी में कोई सरकारी एजेंसी किसी सैनिक के बेटे को किसी आतंकवादी की गिरफ़्त में रहने दे सकती है? क्या कोई माँ इतना ड्रामा करती है, क्या वो असल ज़िंदगी में ऐसा किरदार निभाती है और एक आतंकवादी इतनी आसानी से बदल जाता है, इन सबका जवाब इस फिल्म के पास नहीं है, ये सिर्फ़ दिखावे के लिए बनी है।

क्या कहना है फैन्स का?

सोशल मीडिया पर जब फैन्स ने इब्राहिम का डायलॉग देखा, तो उन्होंने कहा कि सैफ अली खान का बेटा भी एक्टिंग कर सकता है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि फिल्म देखने के बाद ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है।

निष्कर्ष:

ये एक ऐसी फिल्म है जो बहुत कुछ कहना चाहती है, लेकिन इसका माध्यम कमज़ोर है, इसकी सारी कोशिशें अधूरी रह जाती हैं और फिल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है, वो असल ज़िंदगी में नहीं होना चाहिए। ये बिल्कुल मुमकिन नहीं है और इस फिल्म में किरदार जैसा कुछ भी नहीं हुआ है।

इस फिल्म के बारे में आपकी क्या राय है? कमेंट में जरूर बताएं। ऐसी ही मूवी की जानकारी पाने के लिए newswizard24 को फॉलो करें, यहां आपको सारी जानकारी मिलेगी।

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